Saturday 21 October 2017

भैया दूज पूजन विधि एवं मुहूर्त

भैया दूज शुभ मुहूर्त और पूजन विधि:--
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 भाई दूज पर तिलक लगाने या टिका करने का शुभ मुहूर्त दोपहर 01:12 से 03:27 तक है। तिलक करने के मुहूर्त की अवधि 2 घंटे 14 मिनट की है।
  
          कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि 21 अक्टूबर 2017 सुबह 01:37 बजे से प्रारंभ होकर अगले दिन 22 अक्टूबर 2017 प्रातः 03:00 बजे समाप्त होगी।

भैया दूज की पूजा सामग्री:-

1- आरती की थाली
2- टीका, चावल
3- नारियल, गोला (सूखा नारियल) और मिठाई
4-ज्योत और धूप
5- सिर ढंकने के लिये रुमाल या छोटा तोलिया
6- कलावा

 भैया दूज की पूजन विधि:-
 
भाई दूज के दिन बहनों को भाई के माथे पर टीका लगा उसकी लंबी उम्र की कामना करनी चाहिए। इस दिन सुबह पहले स्नान करके विष्णु और गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। इसके उपरांत भाई को तिलक लगाना चाहिए। 

स्कंदपुराण के अनुसार इस दिन पूजा की विधि :-

       इस दिन भाई को बहन के घर जाकर भोजन करना चाहिए। अगर बहन की शादी ना हुई हो तो उसके हाथों का बना भोजन करना चाहिए। अपनी सगी बहन न होने पर चाचा, भाई, मामा आदि की पुत्री अथवा पिता की बहन के घर जाकर भोजन करना चाहिए। साथ ही भोजन करने के पश्चात बहन को गहने, वस्त्र आदि उपहार स्वरूप देना चाहिए। इस दिन यमुनाजी में स्नान का विशेष महत्व है। 
 मान्यता है की इस दिन यदि आसमान में उड़ती हुई चील दिखे और बहनें अपने भाई की लंबी उम्र की कामना करें तो वो दुआ पूरी होती है।
जो बहनें अपने भाईयों से दूर होती है और जिनका कोई भाई नहीं है वे चन्द्र देव की आरती करके अपने भाई के जीवन में खुशहाली और समृद्धि लाने की प्रार्थना करती है।
         आचार्य राजेश कुमार
Divyansh jyotish Kendra

यम द्वितीया, भैया दूज, चित्रगुप्त पूजन और विश्वकर्मा पूजन 21 ऑक्टूबर-2017 को:- चित्रगुप्त जी यमराज जी के आपसी रिश्ते

यम द्वितीया, भैया दूज, चित्रगुप्त पूजन और विश्वकर्मा पूजन 21 ऑक्टूबर-2017 को:- चित्रगुप्त जी यमराज के बहनोई कैसे हुए....
जानिए पौराणिक कथा--
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दीपावली की घोर अमावस्या के बाद जिस दिन चंद्रमा के दर्शन होते हैं, उसी दिन भारत में सर्वत्र यम द्वितीया यानी भैया दूज या भाई दूज का पर्व मनाया जाता है।  इस बार कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि 21 अक्टूबर 2017 अपरान्ह 01:37 बजे से प्रारंभ होकर अगले दिन 22 अक्टूबर 2017 प्रातः 03:00 बजे समाप्त होगी।

इस दिन बहन अपने घर में आए हुए भाई को विशेष प्रकार के व्यंजन परोसती है और उसका आशीर्वाद लेती है।
यम द्वितीया के दिन भाई द्वारा बहन के घर जाना भी एक पौराणिक कथा से संबंधित है। 
पौराणिक कथा:--
      सूर्य के दो जुड़वां संतान यम और यमी का जन्म हुआ था। यम अपने जीवन में इतना व्यस्त हुए कि उसे कभी भी अपनी बहन की सुध लेने की फुर्सत नहीं होती है। 

        यमी का विवाह देवताओं के लेखपाल चित्रगुप्त के साथ हुआ था। जिस कारण चित्रगुप्त और यमराज में बहनोई का रिश्ता हुआ। चित्रगुप्त को भी यमराज के अधीन ही कार्य करना पड़ता है। बाद में यमी का अवतरण धरती पर यमुना नदी के रूप में हुआ। 

         एक दिन यमी ने यमराज से अपने घर आकर उसका आतिथ्य स्वीकार करने की प्रार्थना की। अंततः कार्तिक मास की द्वितीया के दिन यमराज को अपनी बहन यमी के घर जाने की फुर्सत मिली। यमी ने माथे पर तिलक लगा कर यमराज से वचन लिया कि हर वर्ष कार्तिक मास की द्वितीया के दिन चाहे कुछ भी हो, भाई को बहन के घर अवश्य जाना होगा। यमराज ने प्रसन्न होकर यमी को यह वरदान दिया कि मैं अवश्य तेरे घर आऊं और इस दिन पृथ्वी लोक में रहने वाला जो भी नर यमुना नदी के स्नान के बाद अपनी बहन के घर जाएगा, उसे नरक की यातना नहीं भोगनी पड़ेगी।
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  भैयादूज के दिन  यदि आसमान में चील दिखाई दे तो मनोरथ पूर्ण होता है----
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संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर रखती हैं। इस समय ऊपर आसमान में चील उड़ता दिखाई दे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इस संदर्भ में मान्यता यह है कि बहनें भाई की आयु के लिए जो दुआ मांग रही हैं, उसे यमराज ने कुबूल कर लिया है या चील जाकर यमराज को बहनों का संदेश सुनाएगा।
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चित्रगुप्त जी की पूजा का विशेष महत्व:-
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         इसके साथ ही कायस्थ समाज में इसी दिन अपने आराध्य देव चित्रगुप्त की पूजा की जाती है। कायस्थ लोग स्वर्ग में धर्मराज का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त का पूजन सामूहिक रूप से तस्वीरों अथवा मूर्तियों के माध्यम से करते हैं। वे इस दिन कारोबारी बहीखातों की पूजा भी करते हैं। 
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विश्वकर्मा पूजन का महत्व-
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           पुराणों में वर्णित लेखों के अनुसार इस "सृष्टि"की रचयिता आदिदेव ब्रह्मा जी को माना जाता है । ब्रह्मा जी,विश्वकर्मा जी की सहायता से इस सृष्टि का निर्माण किये,  इसी कारण विश्वकर्मा जी को इंजीनियर भी कहा जाता है

         धर्म शास्त्रो के अनुसार ब्रह्मा जी के पुत्र "धर्म" के सातवी संतान जिनका नाम "वास्तु" था, विश्वकर्मा जी वास्तु के पुत्र थे जो अपने माता पिता की भाती महान शिल्पकार हुए जिन्होंने इस सृष्टि  में अनेको प्रकार के निर्माण इन्ही के द्वारा हुआ। देवताओ का स्वर्ग हो या लंका के रावण की सोने की लंका हो या भगवान कृष्ण की द्वारिका और पांडवो की राजधानी हस्तिनापुर इन सभी राजधानियों का निर्माण भगवान विश्वकर्मा  द्वारा की गयी है जो की वास्तु कला की अद्भुत मिशाल है। 
         विश्वकर्मा जी को औजारों का देवता भी कहा जाता है महृषि दधीचि द्वारा दी गयी उनकी हड्डियों से ही "बज्र" का निर्माण इन्होंने ही किया है, जो की देवताओ के राजा इंद्र का प्रमुख हथियार है।

               आचार्य राजेश कुमार
        Divyansh jyotish Kendra

Friday 20 October 2017

गो रक्षा को समर्पित गोवर्धन पूजा, गोवर्धन पर्वत को किन तीन महा विभूतियों ने उठाया था


गोवर्धन पर्वत को तीन बार तीन महा विभूतियों ने कब कब उठाया:-गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई तिल- तिल घट रही है--------
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    भारतीय वाड्मय में श्री गोवर्धन पर्वत को तीन बार उठाने का उल्लेख मिलता है। पहली बार पुलस्त्य मुनि द्वारा, दूसरी बार हनुमान जी द्वारा और तीसरी बार योगिराज श्रीकृष्ण ने इसे उठाया। ऐसी मान्यता है कि द्वापर में यह अति विशाल पर्वत था किंतु आज केवल प्रतीक रूप में ही रह गया है। इसके तिल-तिल घटने की भी एक कथा है।

    बताया जाता है कि एक बार पुलस्त्य मुनि देवभूमि उत्तराखंड पहुंचे। साधना के दौरान उन्हें यह अनुभूति हुई कि गोवर्धन की छाया में भजन करने से सिद्धि प्राप्त होती है। वे सीधे गोवर्धन के पिता द्रोण के पास पहुंचे एवं भिक्षा में उनके पुत्र गोवर्धन को मांगा। द्रोण भला कैसे इंकार कर सकते थे। किंतु गोवर्धन ने एक शर्त रखी कि मैं चलूंगा मगर यदि तुमने मुझे कहीं उतार दिया और जमीन पर रख दिया तो वहीं स्थिर हो जाऊंगा।

            पुलस्त्य मुनि यह शर्त मानकर उन्हें उठाकर चल दिए। जैसे ही वह ब्रज में पहुंचे, गोवर्धन को अंत:प्रेरणा हुई कि श्रीकृष्ण लीला के कर्म में उनका यहां होना अनिवार्य है। बस वे अपना वजन बढ़ाने लगे। इधर मुनि को भी लघुशंका का अहसास हुआ। मुनि ने अपने शिष्य को गोवर्धन को साधे रहने का आदेश दिया और निवृत्त होने चले गए। शिष्य ने कुछ पलों बाद ही वजन उठाने में असमर्थता जताते हुए गोवर्धन को वहीं रख दिया वापिस लौटने पर मुनि ने गोवर्धन को उठाना चाहा किंतु गोवर्धन टस से मस नहीं हुए। उसी समय क्षुब्ध मन से मुनि ने श्राप दिया कि तिलतिल कर घटोगे। तब से गोवर्धन तिल-तिल कर घट रहे हैं।
         



देवराज इंद्र के घमंड को चूर करने के लिए
 श्री गोवर्धन पूजा का आयोजन श्री कृष्ण ने गोकुलवासियों से करवाया था:- गो रक्षा को समर्पित है यह पूजा---------
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  इसकी शुरूआत द्वापर युग से मानी जाती है।यह आयोजन दीपावली से अगले दिन शाम को होता है। इस दिन मंदिरों में अन्नकूट पूजन किया जाता  है। ब्रज के त्यौहारों में इस त्यौहार का विशेष महत्व है। किंवदंती है कि उस समय लोग इंद्र देवता की पूजा करते थे। अनेकों प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाते थे।


यह आयोजन एक प्रकार का सामूहिक भोज का आयोजन है। उस दिन अनेकों प्रकार के व्यंजन साबुत मूंग, कढ़ी चावल, बाजरा तथा अनेकों प्रकार की सब्जियां एक जगह मिल कर बनाई जाती थीं। इसे अन्नकूट कहा जाता था। मंदिरों में इसी अन्नकूट को सभी नगरवासी इकट्ठा कर उसे प्रसाद के रूप में वितरित करते थे।

इस तरह होती है पूजा

ब्रज के मंदिरों में अन्नकूट की परंपरा के अनुसार सर्वप्रथम चावल-हल्दी मिश्रित रोपन से रेखांकन किया जाता है। इसके ऊपर घास का मूठा बनाकर उसे बड़े-बड़े पत्तलों से ढक देते हैं। उसके ऊपर चावलों के कोट से गिरिराज जी की आकृति बनाते हैं। श्री विष्णु भगवान के चारों आयुधों (शंख, चक्र, गदा, पदम) के समान चार बड़े गूझे चारों भुजाओं के रूप में रख दिए जाते हैं। मध्य में बड़ा गोलाकार चांद बनाते हैं जिसे गिरिराज का शिखर माना जाता है। चावल के कोट पर लंबी तुलसी माला लगाकर केसर से सजाते हैं। एक ओर जल एवं दूसरी ओर घी की हांडी रखी जाती है। अन्नकूट के रूप में मिष्ठान, दूध, सामग्री, मेवा, भात, दाल, कढ़ी, साग, कंद, रायता, खीर, कचरिया, बड़ा, बड़ी व अचार प्रयोग किया जाता है।

गौ रक्षा को है समर्पित ये पर्व

वैदिक चिंतन में गौ का बड़ा महत्त्व रहा है। आश्रमों में गाय की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। पंचगव्य का प्रयोग कायाकल्प करने के लिए किया जाता है। इसका उल्लेख आयुर्वेद में भी मिलता है। गाय के गोबर को सम्मान देने की दिशा में ही गोबर से गोवर्धन बनाकर पूजन की परंपरा ऋषि मुनियों ने प्रारंभ की। यदि वर्तमान पीढ़ी इसके अन्तर्निहित अर्थ को समझ कर इसके व्यवस्थित उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर सके, तो यह पर्व अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकेगा।


         यह आयोजन इसलिए किया जाता था कि शरद ऋतु के आगमन पर मेघ देवता देवराज इंद्र को पूजन कर प्रसन्न किया जाता कि वह ब्रज में वर्षा करवाएं जिससे अन्न पैदा हो तथा ब्रजवासियों का भरण-पोषण हो सके। एक बार भगवान श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ गऊएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे वह देखकर हैरान हो गए कि सैंकड़ों गोपियां छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर बड़े उत्साह से उत्सव मना रही थीं। भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों से इस बारे पूछा। गोपियों ने बतलाया कि ऐसा करने से इंद्र देवता प्रसन्न होंगे और ब्रज में वर्षा होगी जिसमें अन्न पैदा होगा।


श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा कि इंद्र देवता में ऐसी क्या शक्ति है जो पानी बरसाता है। इससे ज्यादा तो शक्ति इस गोवर्धन पर्वत में है। इसी कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र देवता के स्थान पर इस गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।


ब्रजवासी भगवान श्री कृष्ण के बताए अनुसार गोवर्धन की पूजा में जुट गए। सभी ब्रजवासी घर से अनेकों प्रकार के मिष्ठान बना गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताई विधि के अनुसार गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा किए इस अनुष्ठान  को देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा तथा क्रोधित होकर अहंकार में मेघों को आदेश दिया कि वे ब्रज में मूसलाधार बारिश कर सभी कुछ तहस-नहस कर दिया।


मेघों ने देवराज इंद्र के आदेश का पालन कर वैसा ही किया। ब्रज में मूसलाधार बारिश होने तथा सभी कुछ नष्ट होते देख ब्रज वासी घबरा गए तथा श्री कृष्ण के पास पहुंच कर इंद्र देवता के कोप से रक्षा का निवेदन करने लगे।


ब्रजवासियों की पुकार सुनकर भगवान श्री कृष्ण बोले- सभी नगरवासी अपनी सभी गउओं सहित गोवर्धन पर्वत की शरण में चलो। गोवर्धन पर्वत ही सबकी रक्षा करेंगे। सभी ब्रजवासी अपने पशु धन के साथ गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच गए। तभी भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठाकर छाता सा तान दिया। सभी ब्रज वासी अपने पशुओं सहित उस पर्वत के नीचे जमा हो गए। सात दिन तक मूसलाधार वर्षा होती रही। सभी ब्रजवासियों ने पर्वत की शरण में अपना बचाव किया। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के कारण किसी भी ब्रज वासी को कोई भी नुक्सान नहीं हुआ।


यह चमत्कार देखकर देवराज इंद्र ब्रह्मा जी की शरण में गए तो ब्रह्मा जी ने उन्हें श्री कृष्ण की वास्तविकता बताई। इंद्र देवता को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। ब्रज गए तथा भगवान श्री कृष्ण के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। सातवें दिन श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को नीचे रखा तथा ब्रजवासियों से कहा कि आज से प्रत्येक ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत की प्रत्येक वर्ष अन्नकूट द्वारा पूजा-अर्चना कर पर्व मनाया करें। इस उत्सव को तभी से अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।                  




 


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Thursday 19 October 2017

दीपावली पर चतुर्ग्रही योग और लक्ष्मी पूजन का समय

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दिवाली पर लक्ष्मी की विशेष पूजा के लिए 12 साल के बाद चतुर्ग्रही योग का संयोग एवं पूजन काल का सटीक समय :-
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                              इस बार ये त्योहार 19 अक्टूबर (गुरुवार)को मनाया जाएगा।  लक्ष्मी पूजा के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रदोष काल के दौरान होता है जब स्थिर लग्न होती है। ऐसा माना जाता है कि अगर स्थिर लग्न के दौरान लक्ष्मी पूजा की जाये तो लक्ष्मीजी घर में ठहर जाती है।
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                              दिनांक 19/10/2017 को सायं 7.02  पर वृष लग्न प्रारम्भ है जिसे  स्थिर लग्न माना गया है और दीवाली के त्यौहार के दौरान यह अधिकतर प्रदोष काल के साथ अधिव्याप्त होता है।  अतः लक्ष्मी की पूजा के लिए शुभ मुहूर्त शाम 07:02 से लेकर 08:57 के बीच  रहेगा। इस शुभ मुहूर्त में पूजा करने से धन, स्वास्थ्य और आयु बढ़ती है।
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        दिवाली पर अधिकांश लोग शाम के वक्त प्रदोषकाल में महालक्ष्मी की पूजा करते हैं। इस बार स्थिर लग्न में शाम 07.02 से रात 8.57 बजे तक कुल 01.59 घंटे का प्रदोषकाल रहेगा। इस दौरान लोग धन, सुख-समृद्धि की कामना से लक्ष्मी, गणेश व कुबेर का पूजन कर सेकेंगे।
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        इस बार एक और खास बात यह भी है कि दिवाली पर लक्ष्मी की विशेष पूजा के लिए 12 साल के बाद चतुर्ग्रही योग का संयोग भी बन रहा है। जो कि रात 8 बजे के बाद शुरू होगा। इसमें सूर्य,चंद्र, बुध और गुरु चारों ग्रह तुला राशि में होंगे।
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       अमावस्या तिथि, गुरुवार का दिन और चित्रा नक्षत्र इन तीनों के एक साथ होने का योग बहुत कम बनता है। ज्योतिष में गुरु को सोना, भूमि, कृषि आदि का कारक ग्रह माना जाता है। जबकि चित्रा नक्षत्र चांदी, वस्त्र, वाहन और इलेक्ट्रॉनिक चीजों के लिए खास व शुक्र की राशि वाला यह नक्षत्र समृद्धि का कारक है।
आचार्य राजेश कुमार
Divyansh jyotish Kendra
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Saturday 14 October 2017

धनत्रयोदशी कब और कैसे मनाये

       

धनत्रयोदशी:-धनतेरस' स्थाई सुख, धन और समृद्धि प्राप्त करने का दिन:--

धनतेरस पर पीतल के बर्तन खरीदना होता है शुभ...

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         इस बार ये त्योहार 17 अक्टूबर (मंगलवार) को मनाया जाएगा। धनतेरस पूजा के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रदोष काल के दौरान होता है जब स्थिर लग्न होती है। ऐसा माना जाता है कि अगर स्थिर लग्न के दौरान धनतेरस पूजा की जाये तो लक्ष्मीजी घर में ठहर जाती है।  दिनांक 17/10/2017 को सायं 7.20 पर वृष लग्न है जिसे  स्थिर लग्न माना गया है और दीवाली के त्यौहार के दौरान यह अधिकतर प्रदोष काल के साथ अधिव्याप्त होता है।  अतः धनतेरस की पूजा के लिए शुभ मुहूर्त शाम 07:20 से लेकर 08:17 के बीच तक रहेगा। इस शुभ मुहूर्त में पूजा करने से धन, स्वास्थ्य और आयु बढ़ती है।


धनत्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरी का जन्म हुआ था और इसीलिए इस दिन को धन तेरस के रूप में पूजा जाता है. दीपावली के दो दिन पहले आने वाले इस त्योहार को लोग काफी धूमधाम से मनाते हैं. इस दिन गहनों और बर्तन की खरीदारी जरूर की जाती है.धनवंतरि' चिकित्सा के देवता भी हैं इसलिए उनसे अच्छे स्वास्थ्य की भी कामना की जाती है।


देवताओं और राक्षसों के बीच समुद्र मंथन


शास्त्रों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान त्रयो‍दशी के दिन भगवान धनवंतरी प्रकट हुए थे, इसलिए इस दिन को धन त्रयोदशी कहा जाता है. धन और वैभव देने वाली इस त्रयोदशी का विशेष महत्व माना गया है.

कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय बहुत ही दुर्लभ और कीमती वस्तुओं के अलावा शरद पूर्णिमा का चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी के दिन कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धनवंतरी और कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को भगवती लक्ष्मी जी का समुद्र से अवतरण हुआ था. यही कारण है कि दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन और उसके दो दिन पहले त्रयोदशी को भगवान धनवंतरी का जन्म दिवस धनतेरस के रूप में मनाया जाता है.


भगवान धनवंतरी को प्रिय है पीतल :--

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भगवान धनवंतरी को नारायण भगवान विष्णु का ही एक रूप माना जाता है. इनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें से दो भुजाओं में वे शंख और चक्र धारण किए हुए हैं. दूसरी दो भुजाओं में औषधि के साथ वे अमृत कलश लिए हुए हैं. ऐसा माना जाता है कि यह अमृत कलश पीतल का बना हुआ है क्योंकि पीतल भगवान धनवंतरी की प्रिय धातु है.

चांदी खरीदना शुभ:-

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धनतेरस के दिन लोग घरेलू बर्तन खरीदते हैं, वैसे इस दिन चांदी खरीदना शुभ माना जाता है क्योंकि चांदी चंद्रमा का प्रतीक माना जाता है और चन्द्रमा शीतलता का मानक है, इसलिए चांदी खरीदने से मन में संतोष रूपी धन का वास होता है क्योंकि जिसके पास संतोष है वो ही सही मायने में स्वस्थ, सुखी और धनवान है।


मान्यता के अनुसार धनतेरस:--

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मान्यता है कि इस दिन खरीदी गई कोई भी वस्तु शुभ फल प्रदान करती है और लंबे समय तक चलती है. लेकिन अगर भगवान की प्रिय वस्तु पीतल की खरीदारी की जाए तो इसका तेरह गुना अधिक लाभ मिलता है.


क्यों है पूजा-पाठ में पीतल का इतना महत्व?

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पीतल का निर्माण तांबा और जस्ता धातुओं के मिश्रण से किया जाता है. सनातन धर्म में पूजा-पाठ और धार्मिक कर्म हेतु पीतल के बर्तन का ही उपयोग किया जाता है.

ऐसा ही एक किस्सा महाभारत में वर्णित है कि सूर्यदेव ने द्रौपदी को पीतल का अक्षय पात्र वरदानस्वरूप दिया था जिसकी विशेषता थी कि द्रौपदी चाहे जितने लोगों को भोजन करा दें, खाना घटता नहीं था।


यम के पूजा का भी विधान:-

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धनतेरस के दिन कुबेर के अलावा देवता यम के पूजा का भी विधान है। धनतेरस के दिन यम की पूजा के संबंध में मान्यता है कि इनकी पूजा से घर में असमय मौत का भय नहीं रहता है।


सधन्यवाद,

                आपका

         आचार्य राजेश कुमार