गोवर्धन पर्वत को तीन बार तीन महा विभूतियों ने कब कब उठाया:-गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई तिल- तिल घट रही है--------
--------------------------------------
भारतीय वाड्मय में श्री गोवर्धन पर्वत को तीन बार उठाने का उल्लेख मिलता है। पहली बार पुलस्त्य मुनि द्वारा, दूसरी बार हनुमान जी द्वारा और तीसरी बार योगिराज श्रीकृष्ण ने इसे उठाया। ऐसी मान्यता है कि द्वापर में यह अति विशाल पर्वत था किंतु आज केवल प्रतीक रूप में ही रह गया है। इसके तिल-तिल घटने की भी एक कथा है।
बताया जाता है कि एक बार पुलस्त्य मुनि देवभूमि उत्तराखंड पहुंचे। साधना के दौरान उन्हें यह अनुभूति हुई कि गोवर्धन की छाया में भजन करने से सिद्धि प्राप्त होती है। वे सीधे गोवर्धन के पिता द्रोण के पास पहुंचे एवं भिक्षा में उनके पुत्र गोवर्धन को मांगा। द्रोण भला कैसे इंकार कर सकते थे। किंतु गोवर्धन ने एक शर्त रखी कि मैं चलूंगा मगर यदि तुमने मुझे कहीं उतार दिया और जमीन पर रख दिया तो वहीं स्थिर हो जाऊंगा।
पुलस्त्य मुनि यह शर्त मानकर उन्हें उठाकर चल दिए। जैसे ही वह ब्रज में पहुंचे, गोवर्धन को अंत:प्रेरणा हुई कि श्रीकृष्ण लीला के कर्म में उनका यहां होना अनिवार्य है। बस वे अपना वजन बढ़ाने लगे। इधर मुनि को भी लघुशंका का अहसास हुआ। मुनि ने अपने शिष्य को गोवर्धन को साधे रहने का आदेश दिया और निवृत्त होने चले गए। शिष्य ने कुछ पलों बाद ही वजन उठाने में असमर्थता जताते हुए गोवर्धन को वहीं रख दिया वापिस लौटने पर मुनि ने गोवर्धन को उठाना चाहा किंतु गोवर्धन टस से मस नहीं हुए। उसी समय क्षुब्ध मन से मुनि ने श्राप दिया कि तिलतिल कर घटोगे। तब से गोवर्धन तिल-तिल कर घट रहे हैं।
देवराज इंद्र के घमंड को चूर करने के लिए
श्री गोवर्धन पूजा का आयोजन श्री कृष्ण ने गोकुलवासियों से करवाया था:- गो रक्षा को समर्पित है यह पूजा---------
--------------------------------------
इसकी शुरूआत द्वापर युग से मानी जाती है।यह आयोजन दीपावली से अगले दिन शाम को होता है। इस दिन मंदिरों में अन्नकूट पूजन किया जाता है। ब्रज के त्यौहारों में इस त्यौहार का विशेष महत्व है। किंवदंती है कि उस समय लोग इंद्र देवता की पूजा करते थे। अनेकों प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाते थे।
यह आयोजन एक प्रकार का सामूहिक भोज का आयोजन है। उस दिन अनेकों प्रकार के व्यंजन साबुत मूंग, कढ़ी चावल, बाजरा तथा अनेकों प्रकार की सब्जियां एक जगह मिल कर बनाई जाती थीं। इसे अन्नकूट कहा जाता था। मंदिरों में इसी अन्नकूट को सभी नगरवासी इकट्ठा कर उसे प्रसाद के रूप में वितरित करते थे।
इस तरह होती है पूजा
ब्रज के मंदिरों में अन्नकूट की परंपरा के अनुसार सर्वप्रथम चावल-हल्दी मिश्रित रोपन से रेखांकन किया जाता है। इसके ऊपर घास का मूठा बनाकर उसे बड़े-बड़े पत्तलों से ढक देते हैं। उसके ऊपर चावलों के कोट से गिरिराज जी की आकृति बनाते हैं। श्री विष्णु भगवान के चारों आयुधों (शंख, चक्र, गदा, पदम) के समान चार बड़े गूझे चारों भुजाओं के रूप में रख दिए जाते हैं। मध्य में बड़ा गोलाकार चांद बनाते हैं जिसे गिरिराज का शिखर माना जाता है। चावल के कोट पर लंबी तुलसी माला लगाकर केसर से सजाते हैं। एक ओर जल एवं दूसरी ओर घी की हांडी रखी जाती है। अन्नकूट के रूप में मिष्ठान, दूध, सामग्री, मेवा, भात, दाल, कढ़ी, साग, कंद, रायता, खीर, कचरिया, बड़ा, बड़ी व अचार प्रयोग किया जाता है।
गौ रक्षा को है समर्पित ये पर्व
वैदिक चिंतन में गौ का बड़ा महत्त्व रहा है। आश्रमों में गाय की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। पंचगव्य का प्रयोग कायाकल्प करने के लिए किया जाता है। इसका उल्लेख आयुर्वेद में भी मिलता है। गाय के गोबर को सम्मान देने की दिशा में ही गोबर से गोवर्धन बनाकर पूजन की परंपरा ऋषि मुनियों ने प्रारंभ की। यदि वर्तमान पीढ़ी इसके अन्तर्निहित अर्थ को समझ कर इसके व्यवस्थित उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर सके, तो यह पर्व अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकेगा।
यह आयोजन इसलिए किया जाता था कि शरद ऋतु के आगमन पर मेघ देवता देवराज इंद्र को पूजन कर प्रसन्न किया जाता कि वह ब्रज में वर्षा करवाएं जिससे अन्न पैदा हो तथा ब्रजवासियों का भरण-पोषण हो सके। एक बार भगवान श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ गऊएं चराते हुए गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे वह देखकर हैरान हो गए कि सैंकड़ों गोपियां छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर बड़े उत्साह से उत्सव मना रही थीं। भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों से इस बारे पूछा। गोपियों ने बतलाया कि ऐसा करने से इंद्र देवता प्रसन्न होंगे और ब्रज में वर्षा होगी जिसमें अन्न पैदा होगा।
श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा कि इंद्र देवता में ऐसी क्या शक्ति है जो पानी बरसाता है। इससे ज्यादा तो शक्ति इस गोवर्धन पर्वत में है। इसी कारण वर्षा होती है। हमें इंद्र देवता के स्थान पर इस गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।
ब्रजवासी भगवान श्री कृष्ण के बताए अनुसार गोवर्धन की पूजा में जुट गए। सभी ब्रजवासी घर से अनेकों प्रकार के मिष्ठान बना गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच भगवान श्री कृष्ण द्वारा बताई विधि के अनुसार गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा किए इस अनुष्ठान को देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा तथा क्रोधित होकर अहंकार में मेघों को आदेश दिया कि वे ब्रज में मूसलाधार बारिश कर सभी कुछ तहस-नहस कर दिया।
मेघों ने देवराज इंद्र के आदेश का पालन कर वैसा ही किया। ब्रज में मूसलाधार बारिश होने तथा सभी कुछ नष्ट होते देख ब्रज वासी घबरा गए तथा श्री कृष्ण के पास पहुंच कर इंद्र देवता के कोप से रक्षा का निवेदन करने लगे।
ब्रजवासियों की पुकार सुनकर भगवान श्री कृष्ण बोले- सभी नगरवासी अपनी सभी गउओं सहित गोवर्धन पर्वत की शरण में चलो। गोवर्धन पर्वत ही सबकी रक्षा करेंगे। सभी ब्रजवासी अपने पशु धन के साथ गोवर्धन पर्वत की तलहटी में पहुंच गए। तभी भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठाकर छाता सा तान दिया। सभी ब्रज वासी अपने पशुओं सहित उस पर्वत के नीचे जमा हो गए। सात दिन तक मूसलाधार वर्षा होती रही। सभी ब्रजवासियों ने पर्वत की शरण में अपना बचाव किया। भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के कारण किसी भी ब्रज वासी को कोई भी नुक्सान नहीं हुआ।
यह चमत्कार देखकर देवराज इंद्र ब्रह्मा जी की शरण में गए तो ब्रह्मा जी ने उन्हें श्री कृष्ण की वास्तविकता बताई। इंद्र देवता को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। ब्रज गए तथा भगवान श्री कृष्ण के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। सातवें दिन श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को नीचे रखा तथा ब्रजवासियों से कहा कि आज से प्रत्येक ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत की प्रत्येक वर्ष अन्नकूट द्वारा पूजा-अर्चना कर पर्व मनाया करें। इस उत्सव को तभी से अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
Show quoted text