Thursday 28 September 2017

घर में पूजा करते समय इन 5 अशुभ गलतियों से बचें तो धनात्मक उर्जा का अत्यधिक मात्रा में आगमन होगा ------

घर में पूजा करते समय इन 5 अशुभ गलतियों से बचें तो धनात्मक उर्जा का अत्यधिक मात्रा में आगमन होगा ------
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सभी घरों में पूजा पर विशेष ध्यान रखा जाता है. शुभ तरीकें से पूजा करने के लिए मंदिर को हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए. मंदिर को वास्तु के हिसाब से लगाना चाहिेए. लेकिन हम जानकारी के आभाव में कुछ ऐसी गलतिययां कर बैठते हैं जो अशुभ होती हैं. इसीलिए हम आपकों आज बताएंगे कि कैसें पूजा के दौरान छोटी छोटी बातों का ध्यान रख भगवान को खुश कर सकते हैं.

1-मंदिर की खंडित मूर्तियों को पूजा में शामिल न करें. बल्कि खंडित मूर्तियों को विसर्जित कर दें. खंडित मूर्ति को बहती नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए. बता दें हिन्दू परंपरा के अनुसार खंडित मूर्ति को मंदिर में रखना अशुभ माना जाता है.

2. पूजा करते समय शंख को भी मंदिर में रखना चाहिए. लेकिन आपके घर में दो शंख तो नहीं है. अगर मंदिर में दो शंख है तो आप उनमे से एक शंख हटा दें.

3.हिन्दू परंपरा के अनुसार कहा जाता है कि मंदिर में ज्यादा बड़ी मूर्तियों को नहीं रखा जाता है. घर में शिवलिंग नहीं रखना चाहिए क्योंकि शिवलिंग बहुत संवेदनशील होता है



4.आप अपने मंदिर में भगवान गणेश की प्रतिमा अवश्य रखें. लेकिन ध्यान दें कि आप के मंदिर में 3 मूर्ति किसी भी भगवान की न हो.

5. भगवान की मूर्तियों को एक-दूसरे से कम से कम 1 इंच की दूरी पर रखें. एक ही घर में कई मंदिर भी न बनाएं वरना मानसिक, शारीरिक और आर्थिक समस्‍याओं का सामना करना पड़ सकता है.

आचार्य राजेश कुमार

Tuesday 19 September 2017

शारदीय नवरात्रि के शुभ मुहूर्त  एवं पूजा, कलश स्थापना विधि:-
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शारदीय नवरात्रि का प्रारंभ इस साल 21 सितंबर -2017 से शुरू हो रहा है। नवरात्रि के नौ दिनों में माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है। माता दुर्गा नवरात्रि में नौ दिनों तक अपने भक्तों पर अपनी कृपा बरसाती हैं।

शारदीय नवरात्र का इतिहास

हमारे शास्त्र के अनुसार भगवान राम ने सबसे पहले समुद्र के किनारे शारदीय नवरात्रों की पूजा की शुरूआत की थी. लगातार नौ दिन की पूजा के बाद भगवान राम ने लंका पर विजय प्राप्‍त करने के उद्देश्‍य से पूजा समाप्‍त कर आगे प्रस्‍थान किया था और भगवान राम को लंका पर विजय प्राप्ति भी हुई थी.
अतः किसी भी मनोकामना की पूर्ति हेतु माँ जगत जननी की पूजा कलश स्थापना  संकल्प लेकर प्रारम्भ करने से कार्य अवश्य सिद्ध होंगे।

नवरात्रि शुभ मुहूर्त-

21 सितंबर को माता दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री की पूजा होगी। 21 सितंबर को सुबह 6:03 बजे से 10.57 बजे तक का समय तत्पश्चात अभिजीत मुहूर्त मध्याह्न 11.36 से 12.24 के मध्य भी कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त होगा ।

कलश स्थापना की विधि -

कलश स्थापना के लिए सबसे पहले जौ को फर्श पर डालें, उसके बाद उस जौ पर कलश को स्थापित करें। फिर उस कलश पर स्वास्तिक बनाएं उसके बाद कलश पर मौली बांधें और उसमें जल भरें। कलश में अक्षत, साबुत सुपारी, फूल, पंचरत्न और सिक्का डालें।

अखंड दीप जलाने का विशेष महत्व

दुर्गा सप्तशती के अनुसार नवरात्रि की अवधि में अखंड दीप जलाने का विशेष महत्व है। मान्यता है कि जिस घर में अखंड दीप जलता है वहां माता दुर्गा की विशेष कृपा होती है।

लेकिन अखंड दीप जलाने के कुछ नियम हैं, इसमें अखंड दीप जलाने वाले व्यक्ति को जमीन पर ही बिस्तर लगाकर सोना पड़ता है। किसी भी हाल में जोत बुझना नहीं चाहिए और इस दौरान घर में भी साफ सफाई का खास ध्यान रखा जाना चाहिए।

शारदीय नवरात्र‌ि इस साल 21 सितंबर से शुरू हो रहा है। माता दुर्गा नवरात्र में नौ दिनों तक अपने भक्तों पर अपनी कृपा बरसाती हैं। नवरात्र के नौ दिनों में माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है।



नवरात्रि में नौ दिन कैसे करें नवदुर्गा साधना

माता दुर्गा के 9 रूपों का उल्लेख श्री दुर्गा-सप्तशती के कवच में है जिनकी साधना करने से भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होते हैं। कई साधक अलग-अलग तिथियों को जिस देवी की हैं, उनकी साधना करते हैं, जैसे प्रतिपदा से नवमी तक क्रमश:-

(1) माता शैलपुत्री : प्रतिपदा के दिन इनका पूजन-जप किया जाता है। मूलाधार में ध्यान कर इनके मंत्र को जपते हैं। धन-धान्य-ऐश्वर्य, सौभाग्य-आरोग्य तथा मोक्ष के देने वाली माता मानी गई हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्यै नम:।'

 (2) माता ब्रह्मचारिणी : स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान कर इनकी साधना की जाती है। संयम, तप, वैराग्य तथा विजय प्राप्ति की दायिका हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं ब्रह्मचारिण्यै नम:।'


(3) माता चन्द्रघंटा : मणिपुर चक्र में इनका ध्यान किया जाता है। कष्टों से मुक्ति तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए इन्हें भजा जाता है।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चन्द्रघंटायै नम:।'


(4) माता कूष्मांडा : अनाहत चक्र में ध्यान कर इनकी साधना की जाती है। रोग, दोष, शोक की निवृत्ति तथा यश, बल व आयु की दात्री मानी गई हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कूष्मांडायै नम:।'


(5) माता स्कंदमाता : इनकी आराधना विशुद्ध चक्र में ध्यान कर की जाती है। सुख-शांति व मोक्ष की दायिनी हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं स्कंदमातायै नम:।'


(6) माता कात्यायनी : आज्ञा चक्र में ध्यान कर इनकी आराधना की जाती है। भय, रोग, शोक-संतापों से मुक्ति तथा मोक्ष की दात्री हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कात्यायनायै नम:।'


(7) माता कालरात्रि : ललाट में ध्यान किया जाता है। शत्रुओं का नाश, कृत्या बाधा दूर कर साधक को सुख-शांति प्रदान कर मोक्ष देती हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं कालरात्र्यै नम:।'


(8) माता महागौरी : मस्तिष्क में ध्यान कर इनको जपा जाता है। इनकी साधना से अलौकिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं। असंभव से असंभव कार्य पूर्ण होते हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महागौर्ये नम:।'


(9) माता सिद्धिदात्री : मध्य कपाल में इनका ध्यान किया जाता है। सभी सिद्धियां प्रदान करती हैं।



मंत्र- 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सिद्धिदात्यै नम:।'

 विधि-विधान से पूजन-अर्चन व जप करने पर साधक के लिए कुछ भी अगम्य नहीं रहता।

 विधान- कलश स्‍थापना, देवी का कोई भी चित्र संभव हो तो यंत्र प्राण-प्रतिष्ठायुक्त तथा यथाशक्ति पूजन-आरती इत्यादि तथा रुद्राक्ष की माला से जप संकल्प आवश्यक है।  जप के पश्चात अपराध क्षमा स्तोत्र यदि संभव हो तो अथर्वशीर्ष, देवी सूक्त, रात्र‍ि सूक्त, कवच तथा कुंजिका स्तोत्र का पाठ पहले करें। गणेश पूजन आवश्यक है। ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन करने से सिद्धि सुगम हो जाती है ।
 आचार्य राजेश कुमार


 अमावस्या को पितरों की विदाई के दिन कैसे करें आपकी कुंडली में विराजमान गुरु चांडाल योग,विष योग एवं राहु के प्रकोप की शांति:-
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     इस बार 19 सितंबर को आमवस्या दिन में 11:52 मिनट पर लग रहा है. यह 20 सितंबर यानी कि बुधवार को सुबह 10:51 तक रहेगा. इसलिए इसके बीच ही पितृ विसर्जन होगा.

आश्विन मास के कृष्णपक्ष का सम्बन्ध पितरों से होता है. इस मास की अमावस्या को पितृ विसर्जन अमावस्या कहा जाता है।

अगर पूरे पितृपक्ष में अपने पितरों को याद न किया गया हो तो इस दिन धरती पर आए हुए पितरों को याद करके उनकी विदाई की जाती है.

केवल अमावस्या को उन्हें याद करके दान करने से और निर्धनों को भोजन कराने से पितरों को शान्ति मिलती है.

इस दिन दान करने का फल अमोघ होता है साथ ही इस दिन राहु से संबंधित तमाम बाधाओं गुरु चांडाल योग, विष योग एवं राहु के प्रकोप इत्यादि से मुक्ति पाई जा सकती है. इस बार पितृ विसर्जन अमावस्या 19 सितम्बर को है.

1-पितृ विसर्जन अमावस्या के दिन  करें गुरु चांडाल योग का निवारण:-
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प्रातःकाल स्नान करके पीपल के वृक्ष में जल दें. इसके बाद पीले वस्त्र धारण करके 'ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः' का जाप करें.

दोपहर के समय किसी निर्धन व्यक्ति को भोजन कराएं.

भोजन में उड़द की दाल, खीर और केले रखें. भोजन के बाद व्यक्ति को पीले वस्त्र और धन, दक्षिणा के रूप में दें.

2-पितृ विसर्जन अमावस्या के दिन  करें विष योग का निवारण:-
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दोपहर में दक्षिण की और मुख करके पितरों को जल अर्पित करें . इसके बाद भगवदगीता के 11वें अध्याय का पाठ करें.

इसके बाद अग्नि में पहले घी की, फिर काले तिल की और फिर भोजन के अंश की आहुति दें.

किसी निर्धन व्यक्ति को भोजन कराएं. इसके बाद उसे चप्पल या जूतों का दान करें.

3-पितृ विसर्जन अमावस्या के दिन  करें राहु की समस्याओं का निवारण करें:-
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पितृ विसर्जन अमावस्या के दिन दोपहर के समय 'ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः' का कम से कम 11 माला जाप करें. इस मंत्र का जाप रुद्राक्ष की माला से करें.

मंत्र जाप के बाद वस्त्रों का और जूते चप्पल का दान करें.

उसी सफेद चंदन की माला को गले में धारण कर लें ।
  आचार्य राजेश कुमार

Friday 15 September 2017

इंदिरा एकादशी व्रत से पितृदेवों को मिलती है श्वर्ग लोक की प्राप्ति


इंदिरा एकादशी व्रत से मिलती है पितरों को स्वर्गलोक की प्राप्ति
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यह एकादशी हमेशा श्राद्ध पक्ष के भीतर ही आती है इसलिए इसका व्रत करने का फल पितरों की शांति से जोड़ा गया है। लेकिन इसके अलावा भी इंदिरा एकादशी को करने के अनेक फायदे हैं।

प्रचलित पौराणिक कथा:-

महाभारत काल में धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे, “भगवान! आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? कृपया आप मुझे इसकी विधि तथा फल बताएं। इस पर भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अधोगति से मुक्ति देने वाली होती है और फिर आगे भगवान इसकी कथा सुनाते हैं।

जिसके अनुसार प्राचीनकाल में सतयुग के समय में महिष्मति नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था। कहते हैं कि उस राजा को किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी।

पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न वह राजा सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु जी का परम भक्त था। एक दिन राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था कि अचानक आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए। उन्हें देखते ही राजा हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और उनका अपनी सभा में स्वागत किया।

सुख से बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातो अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? नारद मुनि की ऐसी बातें सुनकर पहले तो राजा कुछ भौचक्का रह गया लेकिन फिर विनम्रता से बताया।
तभी राजा ने प्रश्न किया कि हे महर्षि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है। किसी को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं है। हमारे यहां सभी धार्मिक कार्य भी सही तरीके से हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! जो दृश्य मैं देखकर आ रहा हूं उसे तुम्हें बताना बेहद आवश्यक है।
ऋषि आगे बोले, मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहां श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा।
तुम्हारे जैसे विद्वान राजा के पिता को ऐसे स्थान पर देखकर मैं हैरान हो गया। मेरा यहां आने का यही कारण है राजन्। तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए एक संदेश भेजा है। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में ‍कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूं, सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्ण इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।

पितरों की आत्मा की शांति के लिए

इसी मान्यता के आधार आज तक पितरों की आत्मा की शांति के लिए एवं उनके उद्धार के लिए इंदिरा एकादशी का व्रत रखा जाता है। संदेश पाने के बाद जिज्ञासु राजा ने नारद मुनि से इस एकादशी के व्रत को करने की विधि पूछी।

व्रत विधि

उत्तर में नारद बोले, ‘आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल उठकर श्रद्धापूर्वक स्नान करें और फिर अपने पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें। प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करते हुए प्रतिज्ञा करें कि ‘मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूंगा।

शालिग्राम की मूर्ति की पूजा

पूजा के लिए शालिग्राम की मूर्ति को स्थापित करें। शालिग्राम की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए और फिर पूजा के दौरान भोग लगाना चाहिए। पूजा समाप्त होने पर शालिग्राम की मूर्ति की आरती भी करनी चाहिए।

ब्राह्मणों को भोजन कराएं

पूजा के दौरान कहें ‘हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूं, आप मेरी रक्षा कीजिए। पूजा के बाद नियमों का खास ध्यान रखते हुए ब्राह्मणों का भोजन तैयार करें और उन्हें भोजन कराएं, साथ ही दक्षिणा भी दें।

ऐसा माना जाता है कि कोई भी मनुष्य यदि इंदिरा एकादशी की तिथि को आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करता है, उसके पितरों को अवश्य स्वर्गलोक प्राप्त होता है।
आचार्य राजेश कुमार

श्री विश्वकर्मा जी के माता-पिता के नाम ,पौराणिक कथा

सृजन के देवता श्री विश्वकर्मा जी के संबंध में रोचक जानकारी
भगवान विश्वकर्मा जी के पिता और माता का नाम:-
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वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा जी:-

हिंदू धर्म के अनुसार भगवान विश्वकर्मा को सृजन का देवता कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि विश्वकर्मा जी ने इन्द्रपुरी, द्वारिका, हस्तिनापुर, स्वर्गलोक, लंका आदि का निर्माण किया था। प्रत्येक वर्ष विश्वकर्मा जयंती पर औजार, मशीनों, औद्योगिक इकाइयों की पूजा की जाती है। आगे की स्लाइड में जानिए विश्वकर्मा पूजा और भगवान विश्वकर्मा से जुड़ी तमाम बातें।
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वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा

भगवान विश्वकर्मा को वास्तुशास्त्र का जनक कहा जाता है। उन्होंने अपने ज्ञान से यमपुरी, वरुणपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी, पुष्पक विमान, विष्णु का चक्र, शंकर का त्रिशूल, यमराज का कालदण्ड आदि का निर्माण किया।
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वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा

विश्वकर्मा जी ने ही सभी देवताओं के भवनों को भी तैयार किया। विश्वमर्का जयंती वाले दिन अधिकतर प्रतिष्ठान बंद रहते हैं। भगवान विश्वकर्मा को आधुनिक युग का इंजीनियर भी कहा जाता है।

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वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा

एक कथा के अनुसार संसार की रचना के शुरुआत में भगवान विष्णु क्षीर सागर में प्रकट हुए। विष्णु जी के नाभि-कमल से ब्रहा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रहा जी के पुत्र का नाम धर्म रखा गया। धर्म का विवाह संस्कार वस्तु नाम स्त्री से हुआ।

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वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा

धर्म और वस्तु के सात पुत्र हुए। उनके सातवें पुत्र का नाम वास्तु रखा गया। वास्तु शिल्पशास्त्र में निपुण था। वास्तु के पुत्र का नाम विश्वकर्मा था। वास्तुशास्त्र में महारथ होने के कारण विश्कर्मा को वास्तुशास्त्र का जनक कहा गया। इस तरह भगवान विश्वकर्मा जी का जन्म हुआ

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भगवान विश्वकर्मा के जन्म से जुड़ा प्रसंग

एक कथा के अनुसार संसार की रचना के शुरुआत में भगवान विष्णु क्षीर सागर में प्रकट हुए। विष्णु जी के नाभि-कमल से ब्रहा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रहा जी के पुत्र का नाम धर्म रखा गया। धर्म का विवाह संस्कार वस्तु नाम स्त्री से हुआ। धर्म और वस्तु के सात पुत्र हुए। उनके सातवें पुत्र का नाम वास्तु रखा गया।

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भगवान विश्वकर्मा के जन्म से जुड़ा प्रसंग

वास्तु शिल्पशास्त्र में निपुण था। वास्तु के पुत्र का नाम विश्वकर्मा था। वास्तुशास्त्र में महारथ होने के कारण विश्कर्मा को वास्तुशास्त्र का जनक कहा गया। इस तरह भगवान विश्वकर्मा जी का जन्म हुआ

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पूजन के लिए मंत्र

भगवान विश्वकर्मा की पूजा में ‘ओम आधार शक्तपे नम: और ओम कूमयि नम:, ओम अनन्तम नम:, पृथिव्यै नम:’ मंत्र का जप करना चाहिए। जप के लिए रुद्राक्ष की माला हो।

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जप शुरू करने से पहले ग्यारह सौ, इक्कीस सौ, इक्यावन सौ या ग्यारह हजार जप का संकल्प लें। चुंकि इस दिन प्रतिष्ठान में छुट्टी रहती है तो आप किसी पुरोहित से भी जप संपन्न करा सकते हैं।

विश्वकर्मा पूजन विधि

विश्वकर्मा जयंती के दिन प्रतिमा को विराजित करके पूजा की जाती है। जिस व्यक्ति के प्रतिष्ठान में पूजा होनी है, वह प्रात:काल स्नान आदि करने के बाद अपनी पत्नी के साथ पूजन करें। हाथ में फूल, चावल लेकर भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करते हुए घर और प्रतिष्ठान में फूल व चावल छिड़कने चाहिए।

इसके बाद पूजन कराने वाले व्यक्ति को पत्नी के साथ यज्ञ में आहुति देनी चाहिए। पूजा करते समय दीप, धूप, पुष्प, गंध, सुपारी आदि का प्रयोग करना चाहिए। पूजन से अगले दिन प्रतिमा के विसर्जन करने का विधान है

औजारों की पूजा

विश्वकर्मा जयंती के दिन प्रतिष्ठान के सभी औजारों या मशीनों या अन्य उपकरणों को साफ करके उनका तिलक करना चाहिए। साथ ही उन पर फूल भी चढ़ाए।

हवन के बाद सभी भक्तों में प्रसाद का वितरण करना चाहिए। भगवान विश्वकर्मा के प्रसन्न होने से व्यक्ति के व्यवसाय में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती है।

ऐसी मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने वाले व्यक्ति के यहां घर धन-धान्य तथा सुख-समृद्धि की कमी नहीं रहती। इस पूजा की महिमा से व्यक्ति के व्यापार में वृद्धि होती है तथा सभी मनोकामना पूरी हो जाती है।

जिस फैक्टरी के मालिक भगवान विश्वकर्मा की जयंती को धूम-धाम से नहीं मनाते उन्हें पूरे साल समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

सबसे बड़े पुत्र मनु ऋषि

भगवान विश्वकर्मा के सबसे बड़े पुत्र मनु ऋषि थे। इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था। इन्होंने ही मानव सृष्टि का निर्माण किया। विष्णुपुराण में विश्वकर्मा को देवताओं का देव बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है।
सबसे बड़े पुत्र मनु ऋषि

स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। विश्वकर्मा इतने बड़े शिल्पकार थे कि उन्होंने जल पर चलने योग्य खड़ाऊ तैयार की थी।
आचार्य राजेश कुमार