Thursday 7 September 2017

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं श्राद्ध में तुसली की महिमा



श्राद्ध का अर्थ......


‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्।’


‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।


श्राद्ध-कर्म से व्यक्ति केवल अपने सगे-सम्बन्धियों को ही नहीं, बल्कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों व जगत को तृप्त करता है। पितरों की पूजा को साक्षात् विष्णुपूजा ही माना गया है।


श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?


प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं–कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।


एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा–’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’


भगवान महाकाल ने बताया कि–विश्वनियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति–इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्दतत्व से रहते हैं और स्पर्शतत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।


पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व


जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।


किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार ?


नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देवयोनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है। यदि पशुयोनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नागयोनि में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, राक्षसयोनि में आमिषरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रुधिररूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।


जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।


श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने किए राजा दशरथ व पितरों के दर्शन


श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधिरूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं–


‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारणकर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छायारूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघनकर वहां कैसे खड़ी रहती; इसलिए मैं ओट में हो गई।’


श्राद्ध में तुलसी की महिमा


तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरुढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।


पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न


श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है—


आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।

पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)


यमराजजी का कहना है कि–


–श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।

–पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।

–परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।

–श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।

–पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।

–श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।


श्राद्ध न करने से होने वाली हानि


शास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाली हानियों का जो वर्णन किया गया है, उन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शास्त्रों में मृत व्यक्ति के दाहकर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दु:ख होता है।


आश्विनमास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे; यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोकपर आते हैं लेकिन जो लोग–पितर हैं ही कहां?–यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं और बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं। फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है।


मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है।


धन के अभाव में कैसे करें श्राद्ध?


ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ; वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।

   आचार्य राजेश कुमार 
पितृ सम्पन्न तो हम सम्पन्न -पितृ नाराज़ तो हम बरबाद-

    श्राद्ध के भेद तथा श्राद्ध करने का तरीका -

   

श्राद्ध परिचय-

 प्रति वर्ष भाद्रपद, शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक के काल को पित्र पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहते हैं।



 शास्त्रों में मनुष्य के लिए

  1-देव-ऋण

 

  2-ऋषि ऋण और

 

  3,- पितृ ऋण-

  ये तीन ऋण बतलाए गए हैं। इनमें श्राद्ध के द्वारा पितृ ऋण उतारना आवश्यक माना जाता है क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य और सुख-सौभाग्यादि की वृद्धि के अनेक यत्न या प्रयास किए उनके ऋण से मुक्त न होने पर मनुष्य जन्म ग्रहण करना निरर्थक माना जाता है। श्राद्ध से तात्पर्य हमारे मृत पूर्वजों व संबंधियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान प्रकट करना है।

  दिवंगत व्यक्तियों की मृत्युतिथियों के अनुसार इस पक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन तिथियों में हमारे पितृगण इस पृथ्वी पर अपने अपने परिवार के बीच आते हैं।

  श्राद्ध करने से हमारे पितृगण प्रसन्न होते हैं और  हमारा सौभाग्य बढ़ता है।


श्राद्ध के दो भेद माने गए हैं-


1. पार्वण और 2. एकोद्दिष्ट


पार्वण श्राद्ध अपराह्न व्यापिनी (सूर्योदय के बाद दसवें मुहूर्त से लेकर बाहरवें मुहूर्त तक का काल अपराह्न काल होता है।) मृत्यु तिथि के दिन किया जाता है, जबकि एकोद्दिष्ट श्राद्ध मध्याह्न व्यापिनी (सूर्योदय के बाद सातवें मुहूर्त से लेकर नवें मुहूर्त तक का काल मध्याह्न काल कहलाता है।) मृत्यु तिथि में किया जाता है।


पार्वण श्राद्ध में पिता, दादा, पड़-दादा, नाना, पड़-नाना तथा इनकी पत्नियों का श्राद्ध किया जाता है। गुरु, ससुर, चाचा, मामा, भाई, बहनोई, भतीजा, शिष्य, फूफा, पुत्र, मित्र व इन सभी की पत्नियों श्राद्ध एकोद्दिष्ट श्राद्ध में किया जाता है।


मृत संबंधी व उनसे जुड़ी श्राद्ध तिथि-


पितृ पक्ष श्राद्ध की तिथियां-


5 सितंबर (मंगलवार) - पूर्णिमा श्राद्ध


6 सितंबर (बुधवार) प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध


7 सितंबर (गुरुवार) द्वितीया तिथि का श्राद्ध


8 सितंबर (शुक्रवार) तृतीया तिथि का श्राद्ध


9 सितंबर (शनिवार) चतुर्थी तिथि का श्राद्ध


10 सितंबर (रविवार) पंचमी तिथि का श्राद्ध


11 सितंबर (सोमवार) छठ तिथि का श्राद्ध


12 सितंबर (मंगलवार) सप्तमी तिथि का श्राद्ध


13 सितंबर (बुधवार) अष्टमी तिथि का श्राद्ध


14 सितंबर (गुरुवार) नवमी तिथि का श्राद्ध


15 सितंबर (शुक्रवार) दशमी तिथि का श्राद्ध


16 सितंबर (शनिवार) एकादशी तिथि का श्राद्ध


17 सितंबर (रविवार) बारस, तेरस तिथि का श्राद्ध


18 सितंबर (सोमवार) चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध


19 सितंबर (मंगलवार) अमावस्या व सर्व पितृ श्राद्ध

जिस संबंधी की मृत्यु जिस चंद्र तिथि को हुई हो उसका श्राद्ध आश्विन कृष्णपक्ष की उसी तिथि के दुबारा आने पर किया जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध नवमी तिथि को किया जाता है। सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी तिथि को किया जाता है। विमान दुर्घटना, सर्प के काटने, जहर, शस्त्र प्रहार आदि से मृत्यु को प्राप्त हुए संबंधियों का श्राद्ध चतुर्दशी को करना चाहिए। जिन संबंधियों की मृत्यु तिथि पता न हो उनका श्राद्ध आश्विन अमावस्या को किया जाता है। जिन लोगों की मृत्यु तिथि पूर्णिमा हो उनका श्राद्ध भाद्रपद पूर्णिमा अथवा आश्विन अमावस्या को किया जाता है। नाना, नानी का श्राद्ध आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है।


श्राद्ध करने की विधि-


         श्राद्ध तिथि के दिन प्रातःकाल उठकर किसी पवित्र नदी अथवा घर में ही स्नान करके पितरों के नाम से तिल, चावल(अक्षत) और कुशा घास हाथ में लेकर पितरों को जलांजलि अर्पित करें। इसके उपरांत मध्याह्न काल में श्राद्ध कर्म करें और ब्राह्मणों को भोजन करवाकर स्वयं भोजन करें। शास्त्रानुसार जिस स्त्री के कोई पुत्र न हों वह स्वयं अपने पति का श्राद्ध कर सकती है। इस दिन गया तीर्थ में पितरों के निमित्त श्राद्ध करने के विशेष माहात्म्य माना जाता है। प्रायः परिवार का मुखिया या सबसे बड़ा पुरुष ही श्राद्ध कार्य करता है।


उपरोक्त विधि से जिस परिवार में श्राद्ध किया जाता है, वहां यशस्वी लोग उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति आरोग्य रहता है। ऐसा विश्वास है कि श्राद्ध से प्रसन्न होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को आयु, धन, विद्या, सुख-संपति आदि प्रदान करते हैं। पितरों के पूजन से मनुष्य को आयु, पुत्र, यश-कीर्ति, लक्ष्मी आदि की प्राप्त सहज ही हो जाती है।

  सधन्यवाद,

          जय माता की,

   आचार्य राजेश कुमार

Monday 4 September 2017

पित्र प्रसन्न तो घर सम्पन्न

    श्राद्ध के भेद तथा श्राद्ध करने का तरीका -
   
श्राद्ध परिचय-
 प्रति वर्ष भाद्रपद, शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक के काल को पित्र पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहते हैं।

 शास्त्रों में मनुष्य के लिए
  1-देव-ऋण
 
  2-ऋषि ऋण और
 
  3,- पितृ ऋण-
  ये तीन ऋण बतलाए गए हैं। इनमें श्राद्ध के द्वारा पितृ ऋण उतारना आवश्यक माना जाता है क्योंकि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य और सुख-सौभाग्यादि की वृद्धि के अनेक यत्न या प्रयास किए उनके ऋण से मुक्त न होने पर मनुष्य जन्म ग्रहण करना निरर्थक माना जाता है। श्राद्ध से तात्पर्य हमारे मृत पूर्वजों व संबंधियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान प्रकट करना है।
  दिवंगत व्यक्तियों की मृत्युतिथियों के अनुसार इस पक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन तिथियों में हमारे पितृगण इस पृथ्वी पर अपने अपने परिवार के बीच आते हैं।
  श्राद्ध करने से हमारे पितृगण प्रसन्न होते हैं और  हमारा सौभाग्य बढ़ता है।

श्राद्ध के दो भेद माने गए हैं-

1. पार्वण और 2. एकोद्दिष्ट

पार्वण श्राद्ध अपराह्न व्यापिनी (सूर्योदय के बाद दसवें मुहूर्त से लेकर बाहरवें मुहूर्त तक का काल अपराह्न काल होता है।) मृत्यु तिथि के दिन किया जाता है, जबकि एकोद्दिष्ट श्राद्ध मध्याह्न व्यापिनी (सूर्योदय के बाद सातवें मुहूर्त से लेकर नवें मुहूर्त तक का काल मध्याह्न काल कहलाता है।) मृत्यु तिथि में किया जाता है।

पार्वण श्राद्ध में पिता, दादा, पड़-दादा, नाना, पड़-नाना तथा इनकी पत्नियों का श्राद्ध किया जाता है। गुरु, ससुर, चाचा, मामा, भाई, बहनोई, भतीजा, शिष्य, फूफा, पुत्र, मित्र व इन सभी की पत्नियों श्राद्ध एकोद्दिष्ट श्राद्ध में किया जाता है।

मृत संबंधी व उनसे जुड़ी श्राद्ध तिथि-

पितृ पक्ष श्राद्ध की तिथियां-

5 सितंबर (मंगलवार) - पूर्णिमा श्राद्ध

6 सितंबर (बुधवार) प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध

7 सितंबर (गुरुवार) द्वितीया तिथि का श्राद्ध

8 सितंबर (शुक्रवार) तृतीया तिथि का श्राद्ध

9 सितंबर (शनिवार) चतुर्थी तिथि का श्राद्ध

10 सितंबर (रविवार) पंचमी तिथि का श्राद्ध

11 सितंबर (सोमवार) छठ तिथि का श्राद्ध

12 सितंबर (मंगलवार) सप्तमी तिथि का श्राद्ध

13 सितंबर (बुधवार) अष्टमी तिथि का श्राद्ध

14 सितंबर (गुरुवार) नवमी तिथि का श्राद्ध

15 सितंबर (शुक्रवार) दशमी तिथि का श्राद्ध

16 सितंबर (शनिवार) एकादशी तिथि का श्राद्ध

17 सितंबर (रविवार) बारस, तेरस तिथि का श्राद्ध

18 सितंबर (सोमवार) चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध

19 सितंबर (मंगलवार) अमावस्या व सर्व पितृ श्राद्ध
जिस संबंधी की मृत्यु जिस चंद्र तिथि को हुई हो उसका श्राद्ध आश्विन कृष्णपक्ष की उसी तिथि के दुबारा आने पर किया जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध नवमी तिथि को किया जाता है। सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी तिथि को किया जाता है। विमान दुर्घटना, सर्प के काटने, जहर, शस्त्र प्रहार आदि से मृत्यु को प्राप्त हुए संबंधियों का श्राद्ध चतुर्दशी को करना चाहिए। जिन संबंधियों की मृत्यु तिथि पता न हो उनका श्राद्ध आश्विन अमावस्या को किया जाता है। जिन लोगों की मृत्यु तिथि पूर्णिमा हो उनका श्राद्ध भाद्रपद पूर्णिमा अथवा आश्विन अमावस्या को किया जाता है। नाना, नानी का श्राद्ध आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है।

श्राद्ध करने की विधि-

         श्राद्ध तिथि के दिन प्रातःकाल उठकर किसी पवित्र नदी अथवा घर में ही स्नान करके पितरों के नाम से तिल, चावल(अक्षत) और कुशा घास हाथ में लेकर पितरों को जलांजलि अर्पित करें। इसके उपरांत मध्याह्न काल में श्राद्ध कर्म करें और ब्राह्मणों को भोजन करवाकर स्वयं भोजन करें। शास्त्रानुसार जिस स्त्री के कोई पुत्र न हों वह स्वयं अपने पति का श्राद्ध कर सकती है। इस दिन गया तीर्थ में पितरों के निमित्त श्राद्ध करने के विशेष माहात्म्य माना जाता है। प्रायः परिवार का मुखिया या सबसे बड़ा पुरुष ही श्राद्ध कार्य करता है।

उपरोक्त विधि से जिस परिवार में श्राद्ध किया जाता है, वहां यशस्वी लोग उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति आरोग्य रहता है। ऐसा विश्वास है कि श्राद्ध से प्रसन्न होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को आयु, धन, विद्या, सुख-संपति आदि प्रदान करते हैं। पितरों के पूजन से मनुष्य को आयु, पुत्र, यश-कीर्ति, लक्ष्मी आदि की प्राप्त सहज ही हो जाती है।
  सधन्यवाद,
                 जय माता की,
                 आचार्य राजेश कुमार


Saturday 26 August 2017

गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन से लगेगा कलंक

गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन करने पर लगेगा कलंक:-
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गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन करना निषेध माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन चंद्र दर्शन करने से व्यक्ति को एक साल तक मिथ्या कलंक लगता है। भगवान श्री कृष्णजी को भी चंद्र दर्शन का मिथ्या कलंक लगने के प्रमाण हमारे शास्त्रों में वर्णित हैं। यदि भूल से चन्द्र दर्शन हो जाए तो शास्त्रों में इसके लिए चंद्र दर्शन दोष निवारण मन्त्र का विवरण है। ऐसा होने पर इस मंत्र का 28, 54 या 108 बार जाप करना चाहिए। इसके साथ ही श्रीमद्भागवत के दसवें स्कन्द के 57वें अध्याय का पाठ करने से भी चन्द्र दर्शन दोष समाप्त हो जाता है।


चन्द्र दर्शन दोष निवारण मन्त्र


सिंहःप्रसेनमवधीत् , सिंहो जाम्बवता हतः।

सुकुमारक मा रोदीस्तव, ह्येष स्यमन्तकः।।


चंद्र दर्शन निषेध का समय
दिनांक समय
25 अगस्त 2017
09ः11ः00 से 21ः18ः59 तक
आचार्य राजेश कुमार

             




Thursday 24 August 2017

हरितालिका तीज शुभ मुहूर्त,पूजन विधि

      हरतालिका तीज कब ,क्यों और ,इसकी पूजा विधि:-
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हरतालिका व्रत को हरतालिका तीज या तीजा भी कहते हैं। इस बार यह व्रत दिनांक 24 अगस्त-2017 को शुभ मुहूर्त सुबह 05.58 से 8.32 तथा शाम 18.47 से 20.27 तक है।
यह व्रत श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती स्त्रियाँ गौरी-शंकर की पूजा करती हैं।

   लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार मां पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। काफी समय सूखे पत्ते चबाकर काटी और फिर कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा पीकर ही व्यतीत किया। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे।

इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर मां पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब मां पार्वती को उनके विवाह की बात बतलाई तो वह बहुत दुखी हो गई और जोर-जोर से विलाप करने लगी। फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं। तब सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया।

मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वह अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करती हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बरकरार रखने के उद्देश्य से भी मनाया जाता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में इस दिन मेहंदी लगाने और झुला-झूलने की प्रथा है।

 विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में मनाया जाने वाला यह त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चांद देखने के बाद व्रत तोड़ दिया जाता है वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत तोड़ा जाता है। इस व्रत से जुड़ी एक मान्यता यह है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियां पार्वती जी के समान ही सुखपूर्वक पतिरमण करके शिवलोक को जाती हैं।

सौभाग्यवती स्त्रियां अपने सुहाग को अखण्ड बनाए रखने और अविवाहित युवतियां मन मुताबिक वर पाने के लिए हरितालिका तीज का व्रत करती हैं। सर्वप्रथम इस व्रत को माता पार्वती ने भगवान शिव शंकर के लिए रखा था। इस दिन विशेष रूप से गौरी−शंकर का ही पूजन किया जाता है। इस दिन व्रत करने वाली स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं और नहा धोकर पूरा श्रृंगार करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इसके साथ पार्वती जी को सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है। रात में भजन, कीर्तन करते हुए जागरण कर तीन बार आरती की जाती है और शिव पार्वती विवाह की कथा सुनी जाती है।

इस व्रत के व्रती को शयन का निषेध है इसके लिए उसे रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करना पड़ता है प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् श्रद्धा एवम भक्ति पूर्वक किसी सुपात्र सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री ,वस्त्र ,खाद्य सामग्री ,फल ,मिष्ठान्न एवम यथा शक्ति आभूषण का दान करना चाहिए।
आचार्य राजेश कुमार


Wednesday 23 August 2017

गणेश महोत्सव का इतिहास

गणेशमहोत्सव की उत्पत्ति और इतिहास:-
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        गणेश चतुर्थी के त्यौहार पर पूजा प्रारंभ होने की सही तारीख किसी को ज्ञात नहीं है, हालांकि इतिहास के अनुसार, यह अनुमान लगाया गया है कि गणेश चतुर्थी 1630-1680 के दौरान शिवाजी (मराठा साम्राज्य के संस्थापक) के समय में एक सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया जाता था। शिवाजी के समय, यह गणेशोत्सव उनके साम्राज्य के कुलदेवता के रूप में नियमित रूप से मनाना शुरू किया गया था। पेशवाओं के अंत के बाद, यह एक पारिवारिक उत्सव बना रहा, यह 1893 में लोकमान्य तिलक (एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक) द्वारा पुनर्जीवित किया गया।

गणेश चतुर्थी एक बड़ी तैयारी के साथ एक वार्षिक घरेलू त्यौहार के रूप में हिंदू लोगों द्वारा मनाना शुरू किया गया था। सामान्यतः यह ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों के बीच संघर्ष को हटाने के साथ ही लोगों के बीच एकता लाने के लिए एक राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में मनाना शुरू किया गया था। महाराष्ट्र में लोगों ने ब्रिटिश शासन के दौरान बहुत साहस और राष्ट्रवादी उत्साह के साथ अंग्रेजों के क्रूर व्यवहार से मुक्त होने के लिये मनाना शुरु किया था। गणेश विसर्जन की रस्म लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित की गयी थी।

धीरे - धीरे लोगों द्वारा यह त्यौहार परिवार के समारोह के बजाय समुदाय की भागीदारी के माध्यम से मनाना शुरू किया गया। समाज और समुदाय के लोग इस त्यौहार को एक साथ सामुदायिक त्यौहार के रुप में मनाने के लिये और बौद्धिक भाषण, कविता, नृत्य, भक्ति गीत, नाटक, संगीत समारोहों, लोक नृत्य करना, आदि क्रियाओं को सामूहिक रुप से करते है। लोग तारीख से पहले एक साथ मिलते हैं और उत्सव मनाने के साथ ही साथ यह भी तय करते है कि इतनी बडी भीड को कैसे नियंत्रित करना है।

गणेश चतुर्थी, एक पवित्र हिन्दू त्यौहार है, लोगों द्वारा भगवान गणेश (भगवानों के भगवान, अर्थात् बुद्धि और समृद्धि के सर्वोच्च भगवान) के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है। पूरा हिंदू समुदाय एक साथ पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ प्रतिवर्ष मनाते है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि गणेश जी का जन्म माघ माह में चतुर्थी (उज्ज्वल पखवाड़े के चौथे दिन) हुआ था। तब से, भगवान गणेश के जन्म की तारीख गणेश चतुर्थी के रूप में मनानी शुरू की गयी। आजकल, यह त्योहार हिंदू एवं बहुत से मुश्लिम समुदाय के लोगों द्वारा पूरी दुनिया में मनाया जाता है।
आचार्य राजेश कुमार

सर्वप्रथम गणेशचतुर्थी पूजन किसने किया

सर्वप्रथम गणेश चतुर्थी का उपवास किसने और क्यों रखा:-
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     एकबार, गणेश स्वर्ग की यात्रा कर रहे थे तभी वो चन्द्रमा से मिले। उसे अपनी सुन्दरता पर बहुत घमण्ड था और वो गणेश जी की भिन्न आकृति देख कर हँस पड़ा। तब गणेश जी ने उसे श्राप दे दिया। चन्द्रमा बहुत उदास हो गया और गणेश से उसे माफ करने की प्रार्थना की। अन्त में भगवान गणेश ने उसे श्राप से मुक्त होने के लिये पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ गणेश चतुर्थी का व्रत रखने की सलाह दी। इस प्रकार पहले व्यक्ति जिसने गणेश चतुर्थी का उपवास रखा था वे "चन्द्रमा" थे।

वायु पुराण के अनुसार, यदि कोई भी भगवान कृष्ण की कथा को सुनकर व्रत रखता है तो वह (स्त्री/पुरुष) गलत आरोप से मुक्त हो सकता है। कुछ लोग इस पानी को शुद्ध करने की धारणा से हर्बल और औषधीय पौधों की पत्तियाँ मूर्ति विसर्जन करते समय पानी में मिलाते है। कुछ लोग इस दिन विशेष रूप से अपने आप को बीमारियों से दूर रखने के लिये झील का पानी का पानी पाते है। लोग शरीर और परिवेश से सभी नकारात्मक ऊर्जा और बुराई की सत्ता हटाने के उद्देश्य से विशेष रूप से गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेश के आठ अवतार (अर्थात् अष्टविनायक) की पूजा करते हैं। यह माना जाता है कि गणेश चतुर्थी पर पृथ्वी पर नारियल तोड़ने की क्रिया वातावरण से सभी नकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित करने में सफलता को सुनिश्चित करता है।
 आचार्य राजेश कुमार